शुक्रवार, 5 अगस्त 2011


satyendera
 
प्रसंगवश
 
तिरंगे पर राजनीति
25-Jan-2011
सांसद और उद्योगपति नवीन जिंदल की याचिका पर सर्वोच्च अदालत की याचिका के बाद देश का आम आदमी भी तिरंगे का सम्मानजनक प्रयोग कर सकता है। अब वह अपने घर, दतर, वाहन और लिबास पर तिंरगा लगा सकता है, अलबत्ता राष्ट्रीय ध्वज का प्रदर्शन अपमानजनक न हो। तिरंगा न तो कांग्रेस और न ही भाजपा की बपौती है। उस पर देश के औसत नागारिक का संवैधानिक अधिकार और दायित्व दोनों ही हैं। लिहाजा भाजपा के कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना न तो राष्ट्रविरोधी है और न ही देश को विभाजित कर ले की कवायद है। अलबत्ता भाजपा से सवाल किया जा सकता हे कि वह 26 जनवरी के राष्ट्रीय अवसर पर ही लाल चौक पर तिरंगा फहराने को आमदा क्यों है? तिरंगे को उसने अपने राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा क्यों बना लिया हे? यदि गणतंत्र दिवस के मौके पर लाल चौक पर झंडा नहीं फहराया जाएगा, तो क्या हमारे गणतंत्र से कश्मीर छिन जाएगा? और यदि तिरंगा फहराया दिया जाए तो क्या कश्मीर पर पाक और चीन की पंगेबाजी समाप्त हो जाएगी? कश्मीर का स्वर्गिक अतीत लौट आएगा और तमाम तनाव झंडे के साथ ही दफन हो जाएंगे? सवाल प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से भी है। तिरंगा फहराना जब संवैधानिक अधिकार है तो भाजपा को जबरन रोकने का मतलब क्या है। सरकारे और भाजपा नेता कुछ वक्त पहले आपस में विमर्श कर सकते थे कि लाल चौक पर सांकेतिक रूप से तिरंगा कैसे फहराया जा सकता है? तिंरगा फहराने की कवायद विभाजनकारी कैसे करार दी जा सकती है? लाल चौक पर पाकिसतान का हरा झंडा फहराते हुए के चित्र हमने देखे हैं। यदि तिरंगे से ही कश्मीर में हिंदू-मुसलमान के समीकरण बनते हैं, तो उस विभाजन को भाजपा के मत्थे क्यों मढ़ा जाए? यह तो कश्मीर की नियति है और राजनीतिज्ञों ने उसे ज्यादा हवा दी है। कश्मीरी हिंदू तो कई पीढि़यों से मुसलमान भाइयों के साथ ही रहते थे। उनके पलायन के लिए डॉ फारूख अब्दुल्ला क्यों माफी मांग रहे हैं? भाजपा की तब भूमिका क्या थी? एक वरिष्ठ पत्रकार का सवाल था कि भाजपा नक्सिलयें के गढ़ दंतेवाड़ा और अबूझमार की ओर या़त्रा क्यों नहीं करती? शायद उन्हें यह जानकारी तो होगी कि भाजपा की उस प्रदेश में सरकार है और नक्सलियों से टकराव के दौरान ज्यादा भाजपाई कार्यकर्ताओं ने जानें गवाई हैं। दंतेवाड़ा और लाल चौक के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व भी अलग-अलग हैं। लिहाजा दोनों की तुलना करना सिर्फ भाजपा को कोसना ही है। तिरंगे की बात छोड़ दे तो तमाम पक्ष तिरंगे के जरिए राजनीति कर रहे हैं। दरअसल भाजपा को भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बीमारी है। कभी राम रथ यात्रा, कभी तेलगंाना यात्रा, गोधरा दंगों के बाद गौरव यात्रा, कभी भारत उदय और भारत सुरक्षा यात्रा और अब राष्ट्रीय एकता यात्रा के जरिए भाजपा खुद की राष्ट्रभक्ति की परीक्षा तो लेती है लेकिन अपने संभावित जनाधार को संबोधित करती है। लिहाजा दूसरे पक्ष के मुस्लिम तुष्टीकरण पर आपात्ति नहीं होनी चाहिए। लाल चौक पर तिरंगा फहराने से कश्मीर के हालात भी नहीं बदलेगें। जब भ्रष्टाचार ओर महंगाई के मुददों पर भाजपा ने यूपीए सरकार की नाक में दम कर रखा है तो फिर एकता यात्रा का यह शिगूफा क्यों? भाजपा को भी यह एहसास होगा कि इन मुददों पर सरकार कुछ करती है तो उससे आम आदमी की तकलीफें कम होंगी, उससे भाजपा को ज्यादा राजनीतिक समर्थन मिलने आसार हैं। तिरंगा एक भावुक मुददा तो है, लेकिन उसे राजनीति में नहीं घसीटना चाहिए। बहरहाल गणतंत्र का वक्त बीत जाएगा, तो कश्मीर को लेकर चल रही राजनीतिक उछलकूद भी शांत हो जाएगी। दुर्भागय यह रहेगा कि अब भी हमारे देश की राजनीति परिपक्व और आम आदमी समर्थक नहीं हो पाई है। सुशील राजेश
 
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नक्सली आतंकवाद /


by सक्सेना, विवेक ; सुशील राजेश ; .
Type: BookPublisher: प्रभात प्रकाशन 2010 .Description: 223पृ 22सेमी (अजिल्द) .ISBN: 9788173158902.Other Title: Naksali Aatankwad by Vivek Saxena .Related Subjects: |
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हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नीरो सरीखे


सुशील राजेश
एक पुरानी कहावत है-रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था।मौजूदा संदर्भों में बेशक यह कहावत कुछ बदल जाए,लेकिन उसका मर्म वही है, जबकि मनमोहन सिंह कहते हैं कि आम आदमी की आमदनी बढ़ी है,लिहाजा महंगाई भी ज्यादा हुई है,क्यों कि चीजों की मांग और खरीद में बढ़ोतरी हुई है।इस संदर्भ में हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नीरो सरीखे जैसे लगते हैं।बल्कि ऐसा एहसास होता है कि मानो आम आदमी के जख्मों पर तेजाब डाल दिया गया हो।संवेदनशील अर्थशास्त्री माने जाने वाले प्रधानमंत्री ने किसकी आमदनी बढ़ने का आकलन किया है।जिस देश में 80 प्रतिशत से ज्यादा असंगठित क्षेत्र हैं।सरकार के योजना आयोग की मान्यता है कि आज भी 37 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।देश की सिर्फ 10 प्रतिशत आबादी ही सरकारी सेवाओं में होने के कारण आर्थिक तौर पर सुरक्षित करार दी जा सकती है,जिसके लिए वेतन आयोग है और महंगाई बढ़ने पर डीए की दर बढ़ने का सुख जिसे हासिल है।सरकार 2010-11 के वित वर्ष में जिस प्रतिव्यक्ति आय के 6.5 या 7 प्रतिशत बढ़ने के दावे कर रही है,वह देश के अरबपतियों के तराजू में ही भूखे-नंगे-गरीब आम आदमी को रखकर और आबादी से विभाजित करके पेश किया जाने वाला अर्थशास्त्रीय गणित है।क्या उसीके आधार पर प्रधानमंत्री इतने विराट देश की किसी समसया का आकलन कर सकते है?बेशक बीते साल का मानसून शानदार रहा।जल के भ्ंडार भरे हैं।भूमिगत जल का स्तर भी ऊंचा हुआ है।शायद उसी आधार पर सरकार बेहतर फसल की उम्मीद कर रही है।लिहाजा अनुमान है कि इस वित वर्ष के दौरान कृषि की विकास दर भी 6 या 6.5 फीसदी तक पहुंच सकती है।बेश किसान और कृषि के लिए यह सुखद संकेत हैं,क्योंकि कृषि अब हमारे सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी)का पांचवा हिस्सा भी नहीं रही है।पिछले वित वर्ष में तो कृषि की विकास दर मात्र दो फीसदी तक भी नहीं पहुंच पाई थी।अलबत्ता यह स्वाभविक है कि किसान के घर में पैसा आएगा,तो उसकी भी इच्छाएं छलागें मारेंगी।वह भी बाजार की ओर दौड़ेगा व खरीदारी करेगा।ऐसे दौर में बाजार में उछाल आना भी स्वाभाविक है।लेकिन यह संभव नहीं है कि खाद्य की मुद्रा स्फीति 17-18 प्रतिशत तक पहुंच जाए।सब्जियों की कीमतें करीब 77 प्रतिशत और फलों के दाम 16 प्रतिशत बढ़ जाएं।दूध,अंड़े,मीट,मछली भी आम आदमी नागरिक के बजट से बाहर होते जाएं।इनके बुनियादी कारण प्रधानमंत्री डॉ सिंह का अर्थशास्त्र ही नहीं है।यानी सिर्फ खरीदारी की क्ष्मता बढ़ने से ही ऐसी पिकराल महंगाई के हालात नहीं बन सकते।दरअसल सरकार अपनी कमियों,खमियों और राजनैतिक समझौतों को कबूल ही नहीं करना चाहती।जमाखोर की जमात क्या है और जमाखोरी पर केंद्र व राज्य सरकारें अकुंश लगाने में नाकाम क्यों हे?सामान्य सा जवाब है कि उस भ्रष्ट जमात के चंदे पर ही राजनीति है और उन मुनाफाखोरों को संरक्षण देना सरकार और नेताओं की मजबूरी है।प्रधानमंत्री इस विवशता को स्वीकार करने में क्यों हिचक रहे हैं?देशभर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पीडीएस)का ढ़ाचा बिल्कुर चरमरा गया है।कुछ गा्रमीण और पिछड़े इलाकों में पीडीएस की मौजूदगी जरूर है,लेकिन उन सरकारी केंद्रों पर आम आदमी और बीपीएल काक मुहैया कराया जाने वाला खाद्यान्न बाजार में ब्लैक किया जा रहा है।क्या प्रधानमंत्री को इस चोरबाजारी की जानकारी नहीं है?अनेक मौकों पर और कई कमेटियों के जरिए बार-बार यह आग्रह किया जाता रहा है कि पीडीएस का ढ़ाचा सुधारा जासख्ती के साथ आधुनिकीकरण के सुधार लागू किए जाएं अथवा अनाज के बदले सरकार गरीबों को नकदी मुहैया कराए,ताकि मुद्रा स्फीति के दौर में भी वे अपने लिए रोटी का बंदोबश्रत कर सकें।मनरेगा के प्रयोग के पांच साल बीत चुके हैं।प्रधानमंत्री और यूपीए अघ्यक्ष मनरेगा में भी भ्रष्टाचार की हकीकत को कबूल कर चुके हैं।तो फिर महंगाई पर नकेल कैसे कसी जाएगी?मार्च तक मुद्रा स्फीति के सात प्रतिशत तक लुढ़कने के जो दावे किए जा रहे हैं,वे महज दिलासा हैं।ऐसा होने के कोई भी आसार नहीं है।प्रधानमंत्री महंगाई और भ्रष्टाचार से चिंतित हैं।वह खुद मानते हैं कि इनसे सुशासन और विकास बाधित होते हैं।वित्त मंत्री झल्ला कर जवाब देते हैं कि सरकार के पास महंगाई से निपटने के लिए जादू की छड़ी या अलादीन का चिराग नहीं है।यदि सरकार ही महंगाई को खत्म करने में खुद को लाचार पाती है,तो यह जिम्मेदारी किसकी है?सरकार का दायित्व क्या है?प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी संस्थानगत निवेश का बहाव प्रभावित हो रहा है।खाद्य सुरक्षा बिल का मसविदा आजतक तय नहीं हो पाया है।सिर्फ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच दोषारोपण का खेल जारी है।क्या हमारे मौजूदा नीरो इनत माम पहलूओं पर विचार करेंगे?प्रधानमंत्री ने कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की जिस जरूरत पर बल दिया है,उनकी सरकार कृषि सुधारों की शुरूआत तो करे।शायद उसी के बाद ही कोई व्यापक बदलाव संभव हो सकेगा।

मुसलमान उर्फ आबिद - इकबाल की जुगलबंदी

Wednesday, June 1, 2011








(पिछले दिनों फेस बुक पर आबिद भाई से मित्रता हुई तो मैंने उन्हें सूचित किया कि उनके आत्मकथात्मक उपन्यास मुसलमान पर ७ मई १९९५ को अमर उजाला में प्रकाशित अपनी टीप, को स्केन कराकर उन्हें भेजूंगा ताकि सनद रहे. पर काफी समय गुजर गया और वह संभव नहीं हो सका. अब इसे यथावत टाइप सेट कर के अपने ब्लॉग की लिंक के ज़रिये उन्हें समर्पित कर रहा हूँ. लगभग सोलह साल पुरानी टीप का फिलवक्त क्या महत्त्व है नहीं जानता पर इस उपन्यास की मुझ पर क्या प्रतिक्रिया हुई उसकी गवाह है यह टीप. याद आता है कि इस उपन्यास को मेरे एक पत्रकार मित्र सुशील राजेश ले कर आये थे मेरे पास हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर में और पूछा था- रमेशजी इस पुस्तक पर कुछ लिखना चाहोगे. तब मैं आबिद भाई को सिर्फ ढब्बूजी के ज़रिये जानता था और पुस्तक समीक्षा का अर्थ मेरे लिये सिर्फ एक पाठकीय नज़रिया ही था.)


मुसलमान! शब्द सुनते ही कैसी तस्वीर उभरती है आम आदमी के ज़ेहन में? इसका जवाब देना जितना आसान है उससे कहीं ज्यादा मुश्किल है. यूँ मनुष्य के चारित्रिक गुणों-दुर्गुणों की तरह एक कौम के चरित्र को भी उसके गुण- दोषों को मद्देनज़र रखते हुए आँका जाना चाहिए, पर हमारी विडंबना यह है कि हम चाहते हुए भी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो

पाते और शायद यही कारण है कि हम किसी के भी बारे में कोई भी फतवा ज़ारी करने से नहीं चूकते. सद्भाव और दुराभाव के बीच सदियों से चली आ रही यह कशमकश आज भी

बरकरार है. हमारा एक भ्रम कांच की तरह टूटता है, बिखरता है तो एक दूसरा भ्रम उसकी जगह ले लेता है.

आबिद सुरती के आत्मकथात्मक उपन्यास "मुसलमान" ऐसे कई भ्रमों को तोड़ने की दिशा में पहल करता है. "तस्कर का मतलब मुसलमान!" यह वहम आज भी पाठकों के एक खास वर्ग के मन में घर कर गया है. जब कि हकीकत यह है कि दो नम्बर के इस काले धंधे में भारत की पंचरंगी जनता का हर रंग मिला है. "हर एक गेंग की रचना धर्मं के आधार पर नहीं, बल्कि उसके सदस्यों की ताकत और उपयोगिता के आधार पर होती है " इस रहस्य को जानने वाले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं, क्योंकि वे गेंग और हाकिमों के बीच की कड़ी होते हैं.

आबिद का दावा है कि उनके इस उपन्यास में सिर्फ सुरैया (उपन्यास में आबिद की प्रेमिका) का नाम काल्पनिक है, ताकि उसके वैवाहिक जीवन पर कोई असर न पड़े. बाकी सभी पात्र, उनके नाम, समय, तारीख, आदि घटनाएं सच हैं. (शायद यह प्रामाणिक कथन उपन्यास की बिक्री में सहायक हो)

उपन्यास के केन्द्र में है बम्बई (आजकल मुंबई), शहर की बदनाम बस्ती डोंगरी की बदनाम गलियों में पैदा हुए...पले..बढ़े दो बच्चे. दोनों की परिस्थितियां सामान है, संयोग समान हैं, फिर भी एक को उजाले आकर्षित करते हैं तो दूसरे को अँधेरे घेर लेते हैं. एक सर्जक के रूप में विकसित होता है तो दूसरा अँधेरी दुनिया का अदृश्य मानव बन जाता है.

एक का नाम है - आबिद सुरती, दूसरे का - इकबाल रूपाणि "सूफी".

इसमें कोई संदेह नहीं कि आबिद सुरती की आधी-अधूरी आत्मकथा (लेखक के अनुसार -"इस उपन्यास में मैंने बचपन से लेकर शादी तक (१९६५) की अवधि को लिया है. अगले भाग में मैं शादी से लेकर अब तक की अवधि लेना चाहता हूँ) से अमर बेल की तरह लिपटी इकबाल रूपाणि "सूफी" की "तस्कर कथा" उपन्यास के कथा-क्रम को गति प्रदान करती है, पर उसके सकारात्मक पक्ष को कमजोर भी करती है. सूफी की जीवनी में "थ्रिल" है, जिससे आबिद जबरदस्त रूप से प्रभावित लगते हैं, इसीलिए उपन्यास के अंत में दी गई प्रणव प्रियदर्शी की बातचीत में यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें नहीं लगता कि यह उपन्यास तस्करी और तस्कर को "ग्लोरिफाई" करता है, वे स्वीकारते हैं-"ग्लोरिफाई करने का मेरा कोइ इरादा नहीं था. मैंने हर जगह इकबाल के तर्क से अल्लाह पर सारी जिम्मेदारी थोप देने के उनके नज़रिए से अपनी असहमति जताई है. लेकिन उनके चरित्र के दो पहलू हैं. एक तरफ से वह तस्कर हैं तो दूसरी तरफ वे पाँचों वक़्त की नमाज़ पढते हैं, सादगीपूर्ण जीवन बिताते हैं, कुरान का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है. चूंकि यह बायोग्राफी है, कल्पना नहीं, इसलिए उनके चरित्र के किसी भी पहलू को मैं नज़र-अंदाज़ नहीं कर सकता. हो सकता है, इसी कारण उसका पात्र कुछ "ग्लोरिफाई" हुआ हो-जैसे कि आप कहते हैं. वरना ऐसे करना मेरा मकसद नहीं था."

आबिद की यह प्रछन्न स्वीकारोक्ति उनके अंदर पल रही किसी कुंठा की ओर इंगित करती है. आबिद शायद यह जानते हैं कि इस उपन्यास की पठनीयता उनकी अपनी "ऑटोग्राफी पर कम इकबाल की "बायोग्राफी" पर ज्यादा निर्भर करती है. इसीलिये उनकी कहानी इकबाल की जबानी से पिछडती मालूम देती है.अपराध जगत के अँधेरी-उजली तहों को खोलती और वह भी उस दुनिया के प्रामाणिक पात्रों को लेकर (जैसा कि लेखक का दावा है) आबिद की यह कृति भले ही एक मुकम्मल उपन्यास न हो पर एक "रिस्की" कार्य अवश्य है, जिसके लिए आबिद की तारीफ़ की जानी चाहिए.

यूँ आबिद का यह उपन्यास मुंबई के महानगर सांध्य दैनिक में "डोंगरी की भूल-भुलैंया" नाम से धारावाहिक रूप में १९९२ में पहले प्रकाशित हो चुका है , इसलिए इसमें आए कई पात्रों, घटनाक्रमो के सम्बन्ध में अब विवाद पैदा हो, कम ही लगता है पर अगर ऐसा होता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. जो नहीं जानते, उनके लिए ये जानकारियाँ रुचिकर (और शायद विवादस्पद, असहनीय भी) हो सकती हैं, जैसे -"सबसे पहले गौ हत्या प्रतिबन्ध का ख्याल किसे आया - बाबर को. "गर्ब से कहो, हम हिंदू है" का नारा देने वाले शिव सेना - प्रमुख बाल ठाकरे का निजी अंगरक्षक इदरीस मुसलमान है. "एक वरदा के चले जाने पर उसका स्थान दूसरा वरदा ले लेता है. एक मस्तान के सन्यास लेते ही उसका रिक्त स्थान दूसरा मस्तान भर देता है. एक सरकार के गिरने पर दूसरी सरकार सत्ता ग्रहण कर लेती है. यह काम अपराध जगत में भी चलता है."

एक को दूसरे से फिर दूसरे को तीसरे से स्थानापन्न करते अपराध-जगत के सरगना केवल मुस्लिम कौम में नहीं, हर कौम में मौजूद हैं. दरअसल, गुडों, मवालिओं तस्करों, हत्यारों की कौमें उनके उन्ही नामों से जानी जाती है, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं.अगर ऐसे नहीं होता टू करीम लाला, इकबाल रूपाणि, हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहीम के अलावा सिंह, और डी. के (जिसके सही "इनिशिअल्स" आबिद के.डी बताते हैं) सांप-सीढ़ी के इस खतरनाक खेल के खिलाडी नहीं होते. व्यवस्था की कमजोरियाँ और बर्तमान कानून की कमियाँ जहाँ अपराधियों के मनोबल को ऊंचा करती हैं, वहीँ भ्रष्ट पुलिस एवं राजस्व अधिकारियों की मिली-भगत इस सांप-सीढ़ी के खेल को कभी खत्म नहीं होने देती. भेसडिया जैसे पात्र इसके प्रमाण है. इकबाल रूपाणि का यह बयान कि अपने देश में कभी किसी दोषी को सजा वर्तमान स्थिति में मिल ही नहीं सकती, अपने आप में एक सवाल है. इकबाल के अनुसार, " दोषियों के नाम पर उनके हलके के कुछ लोगों को सज़ा हो जाती है...अलावा इसके अपराध में मुख्य अपराधी का साथ देने वाले कुछ टपोरी (छुटभैये) भी फंस जाते हैं, लेकिन मुख्य अपराधी कभी गिरफ्त में नहीं आता.

अपराधियों को राजनीतिक सरंक्षण दिया जाना हमारे वर्तमान समाज की जड़ें खोखली करने के लिए काफी है. भ्रष्टाचार का परनाला ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, यह जानते-बूझते भी हमारी व्यवस्था भ्रष्टाचार का उद्गम नीचे-नीचे तलाशती है. कुल मिलाकर आबिद सुरती का यह आत्मकथात्मक उपन्यास इस दुखती रग पर फिर अंगुली रखता है.

फिल्मों की तरह इस उपन्यास से भी कुछ नौसिखिए अपराधी प्रेरणा ले सकते हैं कि एक हत्या के आरोपी (हमित) को मृतक साबित करके फांसी के तख्ते से कैसे बचाया जा सकता है.

अंत में एक सवाल रह जाता है. आम पाठक आबिद सुरती से पूछ सकता है कि इस उपन्यास का नाम "मुसलमान" क्यों रखा गया? क्या ये नाम "सांप-सीढ़ी" अथवा "डोंगरी की भूल-भुलैयाँ" नहीं हो सकता था? (पर अंततः यह विशेषाधिकार तो लेखक का ही है.)

----------------------पुस्तक: मुसलमान (उपन्यास), लेखक: आबिद सुरती, प्रष्ट: ३६४+११, मूल्य: १७५.०० रुपये, प्रकाशक: आशा प्रकाशन गृह, ३० नाई बालान, करोल बाग, नई दिल्ली-११० ००५.

भाजपा के निशाने पर भ्रष्टाचार



सुशील राजेश,
नई दिल्लीः बेशक संसद की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित (साइनेडाई) करनी पड़े, लेकिन भाजपा अब भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने अभियान को रोकने के मूड में नहीं है। ए. राजा के बाद शहरी विकासमंत्री जयपाल रेड्डी, ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भाजपा के निशाने पर हैं। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह तक को इस घेरे की गिरफ्त में लाने की रणनीति है। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान एक दिन भी सदन की कार्यवाही नहीं चल सकी है। हालांकि शोर-शराबे और हंगामे के दौरान ही सरकार कुछ जरूरी दस्तावेज सदनों के पटल पर रखती रही है। भाजपा और विपक्ष के अन्य महत्त्वपूर्ण दल टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले, राष्ट्रमंडल खेलों और आदर्श हाउसिंग सोसायटी के भीतरी घपलों पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग पर अड़े हैं। भीतरी सूत्रों के अनुसार भाजपा का आकलन है कि भ्रष्टाचार के इन मुद्दों पर ही अगले चुनाव जीते जा रहे सकते हैं। पार्टी बोफोर्स की तर्ज पर टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को उग्र बनाना चाहती है। हालांकि लोकसभा चुनावों में अभी साढ़े तीन साल बाकी हैं। सूत्रों के अनुसार यदि हार कर यूपीए सरकार स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी बिठाने की मांग मान भी लेती है, तो भाजपा राष्ट्रमंडल खेलों के मद्देनजर जयपाल रेड्डी को कटघरे में खड़ा करेगी। रेड्डी के खिलाफ दस्तावेज इकट्ठे किए जा रहे हैं। चूंकि शहरी विकास मंत्री होने के नाते दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) और सीपीडब्ल्यूडी आदि महकमे जयपाल रेड्डी के ही अधीन हैं। प्रधानमंत्री ने जो मंत्री समूह बनाया था। जयपाल उसके भी प्रमुख थे।