सांसद और उद्योगपति नवीन जिंदल की याचिका पर सर्वोच्च अदालत की याचिका के बाद देश का आम आदमी भी तिरंगे का सम्मानजनक प्रयोग कर सकता है। अब वह अपने घर, दतर, वाहन और लिबास पर तिंरगा लगा सकता है, अलबत्ता राष्ट्रीय ध्वज का प्रदर्शन अपमानजनक न हो। तिरंगा न तो कांग्रेस और न ही भाजपा की बपौती है। उस पर देश के औसत नागारिक का संवैधानिक अधिकार और दायित्व दोनों ही हैं। लिहाजा भाजपा के कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना न तो राष्ट्रविरोधी है और न ही देश को विभाजित कर ले की कवायद है। अलबत्ता भाजपा से सवाल किया जा सकता हे कि वह 26 जनवरी के राष्ट्रीय अवसर पर ही लाल चौक पर तिरंगा फहराने को आमदा क्यों है? तिरंगे को उसने अपने राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा क्यों बना लिया हे? यदि गणतंत्र दिवस के मौके पर लाल चौक पर झंडा नहीं फहराया जाएगा, तो क्या हमारे गणतंत्र से कश्मीर छिन जाएगा? और यदि तिरंगा फहराया दिया जाए तो क्या कश्मीर पर पाक और चीन की पंगेबाजी समाप्त हो जाएगी? कश्मीर का स्वर्गिक अतीत लौट आएगा और तमाम तनाव झंडे के साथ ही दफन हो जाएंगे? सवाल प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से भी है। तिरंगा फहराना जब संवैधानिक अधिकार है तो भाजपा को जबरन रोकने का मतलब क्या है। सरकारे और भाजपा नेता कुछ वक्त पहले आपस में विमर्श कर सकते थे कि लाल चौक पर सांकेतिक रूप से तिरंगा कैसे फहराया जा सकता है? तिंरगा फहराने की कवायद विभाजनकारी कैसे करार दी जा सकती है? लाल चौक पर पाकिसतान का हरा झंडा फहराते हुए के चित्र हमने देखे हैं। यदि तिरंगे से ही कश्मीर में हिंदू-मुसलमान के समीकरण बनते हैं, तो उस विभाजन को भाजपा के मत्थे क्यों मढ़ा जाए? यह तो कश्मीर की नियति है और राजनीतिज्ञों ने उसे ज्यादा हवा दी है। कश्मीरी हिंदू तो कई पीढि़यों से मुसलमान भाइयों के साथ ही रहते थे। उनके पलायन के लिए डॉ फारूख अब्दुल्ला क्यों माफी मांग रहे हैं? भाजपा की तब भूमिका क्या थी? एक वरिष्ठ पत्रकार का सवाल था कि भाजपा नक्सिलयें के गढ़ दंतेवाड़ा और अबूझमार की ओर या़त्रा क्यों नहीं करती? शायद उन्हें यह जानकारी तो होगी कि भाजपा की उस प्रदेश में सरकार है और नक्सलियों से टकराव के दौरान ज्यादा भाजपाई कार्यकर्ताओं ने जानें गवाई हैं। दंतेवाड़ा और लाल चौक के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व भी अलग-अलग हैं। लिहाजा दोनों की तुलना करना सिर्फ भाजपा को कोसना ही है। तिरंगे की बात छोड़ दे तो तमाम पक्ष तिरंगे के जरिए राजनीति कर रहे हैं। दरअसल भाजपा को भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बीमारी है। कभी राम रथ यात्रा, कभी तेलगंाना यात्रा, गोधरा दंगों के बाद गौरव यात्रा, कभी भारत उदय और भारत सुरक्षा यात्रा और अब राष्ट्रीय एकता यात्रा के जरिए भाजपा खुद की राष्ट्रभक्ति की परीक्षा तो लेती है लेकिन अपने संभावित जनाधार को संबोधित करती है। लिहाजा दूसरे पक्ष के मुस्लिम तुष्टीकरण पर आपात्ति नहीं होनी चाहिए। लाल चौक पर तिरंगा फहराने से कश्मीर के हालात भी नहीं बदलेगें। जब भ्रष्टाचार ओर महंगाई के मुददों पर भाजपा ने यूपीए सरकार की नाक में दम कर रखा है तो फिर एकता यात्रा का यह शिगूफा क्यों? भाजपा को भी यह एहसास होगा कि इन मुददों पर सरकार कुछ करती है तो उससे आम आदमी की तकलीफें कम होंगी, उससे भाजपा को ज्यादा राजनीतिक समर्थन मिलने आसार हैं। तिरंगा एक भावुक मुददा तो है, लेकिन उसे राजनीति में नहीं घसीटना चाहिए। बहरहाल गणतंत्र का वक्त बीत जाएगा, तो कश्मीर को लेकर चल रही राजनीतिक उछलकूद भी शांत हो जाएगी। दुर्भागय यह रहेगा कि अब भी हमारे देश की राजनीति परिपक्व और आम आदमी समर्थक नहीं हो पाई है। सुशील राजेश |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें