एक पुरानी कहावत है-रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था।मौजूदा संदर्भों में बेशक यह कहावत कुछ बदल जाए,लेकिन उसका मर्म वही है, जबकि मनमोहन सिंह कहते हैं कि आम आदमी की आमदनी बढ़ी है,लिहाजा महंगाई भी ज्यादा हुई है,क्यों कि चीजों की मांग और खरीद में बढ़ोतरी हुई है।इस संदर्भ में हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नीरो सरीखे जैसे लगते हैं।बल्कि ऐसा एहसास होता है कि मानो आम आदमी के जख्मों पर तेजाब डाल दिया गया हो।संवेदनशील अर्थशास्त्री माने जाने वाले प्रधानमंत्री ने किसकी आमदनी बढ़ने का आकलन किया है।जिस देश में 80 प्रतिशत से ज्यादा असंगठित क्षेत्र हैं।सरकार के योजना आयोग की मान्यता है कि आज भी 37 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।देश की सिर्फ 10 प्रतिशत आबादी ही सरकारी सेवाओं में होने के कारण आर्थिक तौर पर सुरक्षित करार दी जा सकती है,जिसके लिए वेतन आयोग है और महंगाई बढ़ने पर डीए की दर बढ़ने का सुख जिसे हासिल है।सरकार 2010-11 के वित वर्ष में जिस प्रतिव्यक्ति आय के 6.5 या 7 प्रतिशत बढ़ने के दावे कर रही है,वह देश के अरबपतियों के तराजू में ही भूखे-नंगे-गरीब आम आदमी को रखकर और आबादी से विभाजित करके पेश किया जाने वाला अर्थशास्त्रीय गणित है।क्या उसीके आधार पर प्रधानमंत्री इतने विराट देश की किसी समसया का आकलन कर सकते है?बेशक बीते साल का मानसून शानदार रहा।जल के भ्ंडार भरे हैं।भूमिगत जल का स्तर भी ऊंचा हुआ है।शायद उसी आधार पर सरकार बेहतर फसल की उम्मीद कर रही है।लिहाजा अनुमान है कि इस वित वर्ष के दौरान कृषि की विकास दर भी 6 या 6.5 फीसदी तक पहुंच सकती है।बेश किसान और कृषि के लिए यह सुखद संकेत हैं,क्योंकि कृषि अब हमारे सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी)का पांचवा हिस्सा भी नहीं रही है।पिछले वित वर्ष में तो कृषि की विकास दर मात्र दो फीसदी तक भी नहीं पहुंच पाई थी।अलबत्ता यह स्वाभविक है कि किसान के घर में पैसा आएगा,तो उसकी भी इच्छाएं छलागें मारेंगी।वह भी बाजार की ओर दौड़ेगा व खरीदारी करेगा।ऐसे दौर में बाजार में उछाल आना भी स्वाभाविक है।लेकिन यह संभव नहीं है कि खाद्य की मुद्रा स्फीति 17-18 प्रतिशत तक पहुंच जाए।सब्जियों की कीमतें करीब 77 प्रतिशत और फलों के दाम 16 प्रतिशत बढ़ जाएं।दूध,अंड़े,मीट,मछली भी आम आदमी नागरिक के बजट से बाहर होते जाएं।इनके बुनियादी कारण प्रधानमंत्री डॉ सिंह का अर्थशास्त्र ही नहीं है।यानी सिर्फ खरीदारी की क्ष्मता बढ़ने से ही ऐसी पिकराल महंगाई के हालात नहीं बन सकते।दरअसल सरकार अपनी कमियों,खमियों और राजनैतिक समझौतों को कबूल ही नहीं करना चाहती।जमाखोर की जमात क्या है और जमाखोरी पर केंद्र व राज्य सरकारें अकुंश लगाने में नाकाम क्यों हे?सामान्य सा जवाब है कि उस भ्रष्ट जमात के चंदे पर ही राजनीति है और उन मुनाफाखोरों को संरक्षण देना सरकार और नेताओं की मजबूरी है।प्रधानमंत्री इस विवशता को स्वीकार करने में क्यों हिचक रहे हैं?देशभर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पीडीएस)का ढ़ाचा बिल्कुर चरमरा गया है।कुछ गा्रमीण और पिछड़े इलाकों में पीडीएस की मौजूदगी जरूर है,लेकिन उन सरकारी केंद्रों पर आम आदमी और बीपीएल काक मुहैया कराया जाने वाला खाद्यान्न बाजार में ब्लैक किया जा रहा है।क्या प्रधानमंत्री को इस चोरबाजारी की जानकारी नहीं है?अनेक मौकों पर और कई कमेटियों के जरिए बार-बार यह आग्रह किया जाता रहा है कि पीडीएस का ढ़ाचा सुधारा जासख्ती के साथ आधुनिकीकरण के सुधार लागू किए जाएं अथवा अनाज के बदले सरकार गरीबों को नकदी मुहैया कराए,ताकि मुद्रा स्फीति के दौर में भी वे अपने लिए रोटी का बंदोबश्रत कर सकें।मनरेगा के प्रयोग के पांच साल बीत चुके हैं।प्रधानमंत्री और यूपीए अघ्यक्ष मनरेगा में भी भ्रष्टाचार की हकीकत को कबूल कर चुके हैं।तो फिर महंगाई पर नकेल कैसे कसी जाएगी?मार्च तक मुद्रा स्फीति के सात प्रतिशत तक लुढ़कने के जो दावे किए जा रहे हैं,वे महज दिलासा हैं।ऐसा होने के कोई भी आसार नहीं है।प्रधानमंत्री महंगाई और भ्रष्टाचार से चिंतित हैं।वह खुद मानते हैं कि इनसे सुशासन और विकास बाधित होते हैं।वित्त मंत्री झल्ला कर जवाब देते हैं कि सरकार के पास महंगाई से निपटने के लिए जादू की छड़ी या अलादीन का चिराग नहीं है।यदि सरकार ही महंगाई को खत्म करने में खुद को लाचार पाती है,तो यह जिम्मेदारी किसकी है?सरकार का दायित्व क्या है?प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी संस्थानगत निवेश का बहाव प्रभावित हो रहा है।खाद्य सुरक्षा बिल का मसविदा आजतक तय नहीं हो पाया है।सिर्फ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच दोषारोपण का खेल जारी है।क्या हमारे मौजूदा नीरो इनत माम पहलूओं पर विचार करेंगे?प्रधानमंत्री ने कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की जिस जरूरत पर बल दिया है,उनकी सरकार कृषि सुधारों की शुरूआत तो करे।शायद उसी के बाद ही कोई व्यापक बदलाव संभव हो सकेगा।
शुक्रवार, 5 अगस्त 2011
हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नीरो सरीखे
सुशील राजेश
एक पुरानी कहावत है-रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था।मौजूदा संदर्भों में बेशक यह कहावत कुछ बदल जाए,लेकिन उसका मर्म वही है, जबकि मनमोहन सिंह कहते हैं कि आम आदमी की आमदनी बढ़ी है,लिहाजा महंगाई भी ज्यादा हुई है,क्यों कि चीजों की मांग और खरीद में बढ़ोतरी हुई है।इस संदर्भ में हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री नीरो सरीखे जैसे लगते हैं।बल्कि ऐसा एहसास होता है कि मानो आम आदमी के जख्मों पर तेजाब डाल दिया गया हो।संवेदनशील अर्थशास्त्री माने जाने वाले प्रधानमंत्री ने किसकी आमदनी बढ़ने का आकलन किया है।जिस देश में 80 प्रतिशत से ज्यादा असंगठित क्षेत्र हैं।सरकार के योजना आयोग की मान्यता है कि आज भी 37 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।देश की सिर्फ 10 प्रतिशत आबादी ही सरकारी सेवाओं में होने के कारण आर्थिक तौर पर सुरक्षित करार दी जा सकती है,जिसके लिए वेतन आयोग है और महंगाई बढ़ने पर डीए की दर बढ़ने का सुख जिसे हासिल है।सरकार 2010-11 के वित वर्ष में जिस प्रतिव्यक्ति आय के 6.5 या 7 प्रतिशत बढ़ने के दावे कर रही है,वह देश के अरबपतियों के तराजू में ही भूखे-नंगे-गरीब आम आदमी को रखकर और आबादी से विभाजित करके पेश किया जाने वाला अर्थशास्त्रीय गणित है।क्या उसीके आधार पर प्रधानमंत्री इतने विराट देश की किसी समसया का आकलन कर सकते है?बेशक बीते साल का मानसून शानदार रहा।जल के भ्ंडार भरे हैं।भूमिगत जल का स्तर भी ऊंचा हुआ है।शायद उसी आधार पर सरकार बेहतर फसल की उम्मीद कर रही है।लिहाजा अनुमान है कि इस वित वर्ष के दौरान कृषि की विकास दर भी 6 या 6.5 फीसदी तक पहुंच सकती है।बेश किसान और कृषि के लिए यह सुखद संकेत हैं,क्योंकि कृषि अब हमारे सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी)का पांचवा हिस्सा भी नहीं रही है।पिछले वित वर्ष में तो कृषि की विकास दर मात्र दो फीसदी तक भी नहीं पहुंच पाई थी।अलबत्ता यह स्वाभविक है कि किसान के घर में पैसा आएगा,तो उसकी भी इच्छाएं छलागें मारेंगी।वह भी बाजार की ओर दौड़ेगा व खरीदारी करेगा।ऐसे दौर में बाजार में उछाल आना भी स्वाभाविक है।लेकिन यह संभव नहीं है कि खाद्य की मुद्रा स्फीति 17-18 प्रतिशत तक पहुंच जाए।सब्जियों की कीमतें करीब 77 प्रतिशत और फलों के दाम 16 प्रतिशत बढ़ जाएं।दूध,अंड़े,मीट,मछली भी आम आदमी नागरिक के बजट से बाहर होते जाएं।इनके बुनियादी कारण प्रधानमंत्री डॉ सिंह का अर्थशास्त्र ही नहीं है।यानी सिर्फ खरीदारी की क्ष्मता बढ़ने से ही ऐसी पिकराल महंगाई के हालात नहीं बन सकते।दरअसल सरकार अपनी कमियों,खमियों और राजनैतिक समझौतों को कबूल ही नहीं करना चाहती।जमाखोर की जमात क्या है और जमाखोरी पर केंद्र व राज्य सरकारें अकुंश लगाने में नाकाम क्यों हे?सामान्य सा जवाब है कि उस भ्रष्ट जमात के चंदे पर ही राजनीति है और उन मुनाफाखोरों को संरक्षण देना सरकार और नेताओं की मजबूरी है।प्रधानमंत्री इस विवशता को स्वीकार करने में क्यों हिचक रहे हैं?देशभर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पीडीएस)का ढ़ाचा बिल्कुर चरमरा गया है।कुछ गा्रमीण और पिछड़े इलाकों में पीडीएस की मौजूदगी जरूर है,लेकिन उन सरकारी केंद्रों पर आम आदमी और बीपीएल काक मुहैया कराया जाने वाला खाद्यान्न बाजार में ब्लैक किया जा रहा है।क्या प्रधानमंत्री को इस चोरबाजारी की जानकारी नहीं है?अनेक मौकों पर और कई कमेटियों के जरिए बार-बार यह आग्रह किया जाता रहा है कि पीडीएस का ढ़ाचा सुधारा जासख्ती के साथ आधुनिकीकरण के सुधार लागू किए जाएं अथवा अनाज के बदले सरकार गरीबों को नकदी मुहैया कराए,ताकि मुद्रा स्फीति के दौर में भी वे अपने लिए रोटी का बंदोबश्रत कर सकें।मनरेगा के प्रयोग के पांच साल बीत चुके हैं।प्रधानमंत्री और यूपीए अघ्यक्ष मनरेगा में भी भ्रष्टाचार की हकीकत को कबूल कर चुके हैं।तो फिर महंगाई पर नकेल कैसे कसी जाएगी?मार्च तक मुद्रा स्फीति के सात प्रतिशत तक लुढ़कने के जो दावे किए जा रहे हैं,वे महज दिलासा हैं।ऐसा होने के कोई भी आसार नहीं है।प्रधानमंत्री महंगाई और भ्रष्टाचार से चिंतित हैं।वह खुद मानते हैं कि इनसे सुशासन और विकास बाधित होते हैं।वित्त मंत्री झल्ला कर जवाब देते हैं कि सरकार के पास महंगाई से निपटने के लिए जादू की छड़ी या अलादीन का चिराग नहीं है।यदि सरकार ही महंगाई को खत्म करने में खुद को लाचार पाती है,तो यह जिम्मेदारी किसकी है?सरकार का दायित्व क्या है?प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी संस्थानगत निवेश का बहाव प्रभावित हो रहा है।खाद्य सुरक्षा बिल का मसविदा आजतक तय नहीं हो पाया है।सिर्फ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच दोषारोपण का खेल जारी है।क्या हमारे मौजूदा नीरो इनत माम पहलूओं पर विचार करेंगे?प्रधानमंत्री ने कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने की जिस जरूरत पर बल दिया है,उनकी सरकार कृषि सुधारों की शुरूआत तो करे।शायद उसी के बाद ही कोई व्यापक बदलाव संभव हो सकेगा।
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